श्यामसुुन्दर यादव ‘पथिक’
मुर्झायल चेहरा आ उजड़ल–पुजड़ल केश । जेना युवक सुमितके बड़का विपति पड़ल होय । आँखि बन्द कए दारूक गिलास खाली करैत जा रहल छल । टेबुुलमे सङ्ग दऽ रहल रमेश बाजल— ‘हौ भैया, बुुझाइय बेसी भऽ गेल ।’
एक्के साँसमे घट्का कए गिलास टेबुुलमे पटकैत सुुमित बाजल—‘एक क्वाटर आओर, ओहि पगलीक नाम ।’ (लम्बा साँस तानैत) हम्मर प्राण छल ओ ।’
‘भैया, आब बिसैर जा, बितलाहा बात ।’
‘कदापि नहि, ओकर खातिर की नहि केलियै ? नर्सिङ्ग पढ़ाकए पोखराक प्राइभेट होस्पिटलमे नोकरी लगा देलियै । महिना दिनमे ओकरा सऽ भेटय जाइते रहियै । बादमे फोनफान बन्न भऽ गेल । भटकैत रहलियै । बादमे पता चललै ओ डाक्टर पढ़एवाला लड़का सऽ विवाह करि रहए लागल ।
सुुमित धाराप्रवाह बात राखैत जा रहल छल—‘वरिष दिन मात्र सम्बन्ध टिक सकल । एक दिन अन्जान नम्बर सऽ फोन आयल । हम हेल्लो कहलियै । ऋचा रहए । हमरा एकबेरक लेल माफ कऽ दियऽ, ओ कहलकै ।
(दारूमे घोंट मारैत) ‘अञ्जानमे भेल गल्ती बुझि माफ कऽ देलियै । फेनो हमसभ एक दोसरके प्राण बनि गेलियै । घरमे बियाहक बात चलैत रहल । टारैत रहलियै, कारण ऋचाकेँ जिनगी मानि लेने छेलियै ।’
‘भेंट भेला महिनो दिन नहि छल । तकरबाद मोबाइल औफ । फेनो हम पानि बिनाक माछ जकाँ तड़पय लागलियै । दोसर नम्बरसऽ फोन आएल : ऋचा बाजैत छी । देहमे प्राण आएल । ओ बाजलीह— हम बिआह कऽ लेलियै । अमेरिका जा रहल छी । अहुँ शादी कऽ लिय । बिसैर जाउ हमरा । आब हमर–अहाँक भेंट नहि भऽ सकत ।’
‘दश वरिषधरि जिनगीके आगिमे झोंकैत विश्वास करैत गेलियै । कमाइ ओकरामे लुटबैत गेलियै । आब केना जिबै रे ?’
‘भैया नहि कानऽ, होशमे आबऽ ।’
रे, अहि वैशाखमे बिआह करएके निस्तुकी भेल छलै । विश्वास केनाइ हमर दोष छल आ कि ओकर विश्वासघात ? रमेश अबाक रहि गेल ।