प्राची मिश्रा
मेरे दुपट्टे का एक छोर
जिसमें बेफिक्र होकर तुम
पोंछ सको अपने आँसू
हां तुमने ठीक सुना!!
मैं चाहती हूँ तुम दर्द को
इक्कठा करना छोड़ दो
तुम्हारे रोने से तुम्हारा पुरुषत्व कम नहीं होता
और न ही कम होता है तुम्हारे गंभीर होने का गुण
तुम भी मेरे जैसे ही हो
मैं भी तुम जैसी ही हूँ
जैसे मेरे दुखी होने पर
तुम्हारा सीना है मेरे आँसू सोखने के लिए
वैसे ही तुम भी रो सकते हो
मेरी छाती से लगकर
और मुक्त हो सकते हो
हर बोझ से
जिसने दबा रखा है तुम्हारे मन को
और उतार दिया है
खारा समंदर तुम्हारी आँखों में
उस समंदर को बनने दो बादल
और बरसने दो मुझ पर
मैं इन्हें समा लूंगी अपनी आत्मा में
और विश्वास के अंकुर बन कर उग जाऊंगी
तुम्हारे हृदय में जीवन भर के लिए
तुम किस डर में हो
क्या सता रहा है तुम्हें
क्यों नहीं कहते हो अपनी पीड़ा मुझसे
तुम्हारे पुरुष होने के मापदंड
दुनिया के लिए है
मेरे पास तुम उस शिशु की तरह हो
जो बेफिक्र होकर कह देता है
अपनी सारी उलझने
जो बता देता है अपनी ज़िद और अपना हर दर्द
तुम्हारा हाथ थामकर सुनना है मुझे
उस तूफान का शोर
जो कबसे पाला है तुमने अपने भीतर
काम की थकन
जिम्मेदारियों का बोझ
और खुद को मजबूत दिखाने की कवायद
जानती हूँ
इनसे मुक्त न हो सकोगे तुम
पर मेरे पहलू में
तुम उतार दो कुछ पल के लिए ये मुखौटा
जानती हूँ
कठिन है पुरुष होना
किसी से कुछ कहे बिन
सब कुछ पी जाना
जैसे शिव ने रोका है हलाहल को अपने कंठ में
वैसे ही तुम भी रोक लेते हो बहुत सी बातें अपने होठों पर
दुनिया को दिखता है बस तुम्हारा गुस्सा
पर नहीं दिखता तुम्हारा अकेलापन
जानती हूँ
कठिन है पुरुष होना
पर जब समझ लेना तुम मुझे अपना हिस्सा
लौट आना पास मेरे
जैसा लौटता है
कोई परदेशी घर अपने
और पा लेता है सुकून
जानती हूँ
कठिन है पुरुष होना।