श्यामसुन्दर यादव ‘पथिक’
पछिला बेन्चमे किताब राखिकए चन्दा बैसि गेलीह । चेहरा मुर्झाएल बुझा रहल छल । गै, की भेलौं तोरा ?, कथीले मोन खसल छौ ? नेहा हाथ पकडि़ कए किलाससऽ फूलबारी दिस लऽ गेल ।
‘गै की भेलौ बाज न ? हमरा तऽ कह, सखी छियौ ने ।’ करुण स्वरमे चन्दा बाजलि’ हमर तऽ करमे फूटल छै, आब काल्हि सऽ ईस्कूल नहि एबौ, हमर बिआह भऽ रहल छै, आइ निकसऽ मिल ले ।’
‘माय बाबुके तोंहेँ नहि कहलिही, नम्मे किलासमे छी, एखनी विआह नहि करबौ, हमरा पढय दे’ ।
टपकैत नोर पोछैत चन्दा बाजलि ‘कहलियै, महन माए कहलक, पढबएके मोन तऽ हमरो छलै ने ? की करबौ, गरिबी जीवन आऽ तहूमे पाँच–पाँचटा बेटी । विआहमे दश–बीस लाख दहेज चाही न ? ई लइड़का विदेशसऽ आएल छै, ताही खातिर माङ्गचाङ्ग नहि छै ।’
नेहा बाजलिह ‘तोहर मायबाबुसऽ बात करियौ ?’
‘नहि, आब छोडि़ दही, काल्हि खिना गोसाइँ गीत छियै, मामा मामी सैब आबि गेल छै ।’
घण्टी बाजल । दुनू सखी किलास गेलिह । एम्हर चन्दाक घरमे विआहक तैआरी भऽ रहल छल । परिजनेटा के बजाओल गेल छल, जाहिसँ विआहक विषयमे बेसी लोक नहि बुझए ।
बरिआतीक सङ्ग दुलहा आएल । रातियेमे सभ बिध पुरा कए भोरे चन्दाके सासुर पठेबाक तैआरी भऽ रहल छल । कननारोहटिके माहोल छल । चन्दाकेँ चुप करैत एक महिला कानमे कहि रहल छलिह ‘गै दाइ, मुँह लागल नहि बजिहेँ, दुल्हाक बात मानिहेँ, सासु–ससुरके सेवा करिहेँ ।’
चन्दाकेँ जीपमे दुलहा लग बैठा देल गेल । लारू–बातू भेल ओ नव कनिया “माय गे माय, भौजी गे भौजी ” हाकरोस कऽ रहल छली । जीप चन्दाक नवघर सासुर दिस बढि़रहल छल ।
“की करतै बेचारा जिलेबीया, पाँच–पाँचटा बेटीये छै, कहुना एकटाके अङ्ग लगेलक ।” दोसर महिला बाजलिह “हँ, बेटीकेँ काँचे उमरमे ससुरा साँठैत रहू, समाजमे लोक रहै छै कि मुर्दा ? सभ अनुत्तरित भऽ गेल ।